Poems -

पता नहीं कितने विषधारी,

पता नहीं कितने विषधारी,
वेश बदल है विचर रहे,
उनका मकसद सिर्फ विनाश है,
कल्याण का स्वांग है रच रहे।

पलते जो देश के टुकड़ों पर ही
सपने पाले देश के टुकड़े करने की,
मिल कर देश के दुश्मन से,
तैयारी अपनों को ही डसने की।

उन्हें लगे वो चमक रहे हैँ,
क्रांति पथ पर बढ़ रहे हैँ,
कुछ भी कर नेता बनना है,
देश का सौदा कर रहे हैँ।

जागो जन, जागो अब,
निंद्रा का ये समय नहीं,
पहचानो, कुचलो उनको सब,
विषधर से हो कोई भय नहीं।

ए बबुआ सुन,जेन ज़ी मत बनिह,

ए बबुआ सुन,जेन ज़ी मत बनिह,

आदमी के बेटा हव, आदमियत रखिह!

ई इंटरनेट, सोशल मीडिया बड़का मायाजाल ह,

मकड़ी के मारे वाला, ओकरे मकड़जाल ह,

तू सोचतार s तू ओकर इस्तेमाल करतार

चुपके से अनजाने में तू ओकर गुलाम बनतार

दोस्ती यारी परिवार के सम्बन्ध दूर हो गईल,

अनमने भाव से इमोजी भेजे के दस्तूर हो गईल,

काल्पनिक हो गईल मिठाई फूल, शाबासी सांत्वना प्यार और दुलार,

बस उद्वेलित, मन, भइल शूल,

सही गलत के होत नइखे विचार,

गलत सही के भेद छुपा के,

काँचा बुद्धि के भरमा के

देश में उपद्रव फैलावे के,

कुटिल चाल में मत फँसीह s!

दूर देश में बइठल कोई आग लगावे,

असंतुष्टि के चिंगारी के शोला उ बनावे,

अराजकता के नाम क्रांति दें, संघर्ष फैलावे

जेन ज़ी अपने हाथों, आपन देश जलावे.

जब स्वविवेक पर उकसावा पड़ जाए भारी,

जली घर और सम्पदा,जिन्दा जलिहे नारी,

खून खराबा लूट पाट बन जाई रोजगारी,

मानवता के धर्म भूला होखी मारा मारी,

अइसन ज्ञान तू कभी ना पइह,

भले तू अनपढ़ रह जइह, लेकिन,

अइसन जेन ज़ी कभी जन बनिह! ए बाबू!

बहुत खुशदिल नेक इंसान था

बहुत खुशदिल नेक इंसान था,

सबके सुख दुःख का साथी था,

कल बनाई थी उसने, दसवर्षीय योजना,

छोटे से बड़ा, और बहुत बड़ा बनने का,

स्वप्न का क्या? असीम उड़ान लेती है,

पर यथार्थ, सीमाओं में बाँध लेती है,

अवाक खड़े हैँ, सब बन, मौन साक्षी,

मैं हूँ से, पल में, था, होने की यात्रा की,

जिंदगी गुलजार थी, थी पूर्ण खुशहाली,

बस, एक आह, और साँस हो गया खाली,

है गति सबकी एक, पर यह माने कौन?

दम्भ लोभ ना जाए, जब तक हो जाएँ चिर मौन!

चल बाबा के नगरिया हम घूम आई जा ,

बनारस यात्रा -30-31 अगस्त 2025

चल बाबा के नगरिया हम घूम आई जा

बाबा भोले से, अरजिया लगा आई जा.. चल

विश्व के नाथ जी काशी विराजे,

उनकर गुण सारा विश्व ई गावे,

जे भी मन से शीश नवाए,

उनकर शरणागत हो जावे,

बाबा उनका पर किरपा बरसाई ला....चल

गंगाधर गंगा के भार उठावे,

गंगा उनकर चरण पखारे,

अन्नपूर्णा जहाँ भरस भंडारे,

भैरव जहाँ बनलन रखवारे

ई मुक्तिधाम के धुरिया, माथे लगाई जा. चल...

कण कण मे जहाँ शिव जी विराजे,

उनकर ऊर्जा सब पापों से उबारे,

जब जब संकट के बादल छाए,

देव ऋषि मनु शिव शरण मे आए,

दुःख भंजन से नेहिया लगा आई जा... चल.

देखो गाँव वो शहर बन रहा.

देखो गाँव वो शहर बन रहा.

अमृत था, वो ज़हर बन रहा.

बरामदा चौपाल सूने ताक रहे,

अब ना कोई हमसफ़र बन रहा,

हँसी ठिठोली की जगह सन्नाटा पसरा ,

महल जो था, वो अब खंडहर बन रहा,

गाँव की बेटी की शादी नहीं रही अब,

सीमित परिवार का मामला बन रहा,

बरगद खुश था देख, कुछ लोग आए,

स्तब्ध! संवाद की जगह सेल्फी बन रहा!

ऐ हवा, ये कैसी हवा चलाई है तूने,

आदमी आदमी से दूर स्वार्थी बन रहा.

हवा ने झकझोर बरगद को दिखाया,

दादा पोता का सम्बल बन रहा!

अभी ख़त्म नहीं हुआ सबकुछ धीर रख,

देख दूर, शहर से वापसी का पथ बन रहा!!

प्रणव कुमार

My Blogs And Writings

मुक्तक

अपनी ही बातों से वो रोज मुकरते,
चले हैँ हमें, मेरा वादा याद दिलाने!
जो हर पल हैँ स्वार्थ में, आस्था बदलते,
बेशर्मी से चले हैँ हमें आस्था सिखाने
एक रोज मैदान में देख कर उन्हें,
देखा गिरगिटों को भी शरमाते मैंने!

लघुकथा

दिहाड़ी
प्रणव कुमार,
बच्चों महीना पूरा हो गया है, हमारी ट्यूशन फी घर से कल ले आना! त्रिपाठी जी ने अपने यहाँ ट्यूशन पढ़ रहे बच्चों से कहा। जी माटसाहब बच्चों ने उत्तर दिया।
अगले दिन कुछ बच्चों ने पैसे दिए। उसमें एक बच्चे ने मात्र 25 रुपए थमाए। यह देख त्रिपाठी जी ने पूछा, ‘‘किशोर! यह तो 25 रूपए हैं, पाँच रुपए तो कम हैं।’’
किशोर ने तपाक से बड़े ही विश्वास से साथ उत्तर दिया, ‘‘माटसाहब! तीस रुपए महीने का तय था, तो एक दिन का एक रुपए दिहाड़ी हुई, इस महीने 4 रविवार थी और एक दिन आप बीमार हुए, तो कुल 25 दिन ही तो पढ़ाई हुई, तो कुल 25 रुपए का ही तो हिसाब बना न।’’
त्रिपाठी जी किशोर के व्यावसायिक गणित से आहत, हतप्रभ और क्रोध मे पैसे लौटाते हुए बोले, ‘‘किशोर बस्ता समेटो और बाप को बोलना कि त्रिपाठी जी ने उनके लिए दिहाड़ी पर काम करने से मना कर दिया है। सारे बच्चे अवाक् शिक्षक के दिहाड़ी मजदूर बनने के साक्षी बन सोचने लगे, क्या सचमुच शिक्षा का मोल दिया जा सकता है?’’
सॉरी बेटा!
दोनों भाइयों को आपस में लड़ते देख कर शर्मा जी ने दूर से आवाज लगाई, बेटा झगड़ा नहीं करते! तभी छोटे बेटे ने कहा पापा! भैया मार रहा है! शर्मा जी ने दोनों को अलग कर बड़े बेटे को समझाया, बेटे छोटों को मारते नहीं! प्यार से समझाते हैँ! तभी तपाक से बड़े ने जवाब दिया," पापा "आप मुझे क्यों मारतेहो?" शर्मा जी निरुत्तर परन्तु सोचते हुए बोले " सॉरी बेटा ". बेटा भी खुश होकर उनसे चिपक गया।
प्रणव कुमार पाण्डेय
वैशाली, ग़ाज़ियाबाद